Saturday 11 February 2017

वीरांगना आशादेवी गुर्जराणी -1857 विद्रोह की महानायिका /Veerangna Asha Devi Gurjarani

शहीद वीरांगना आशादेवी गुर्जराणी - Veerangna Asha Devi Gurjarani

1857 Revoution of India | First War of Independence | Meerut | Muzaffarnagar | Kotwal Dhan singh GurjarSaheed Asha Devi Gujari | 1857 Revolt | Uttarpradesh | Mutiny | British 
Veerangna Ashadevi Gujarani - 1857 Revoution of India


भारत माँ को अपने सपूतों पर गर्व हैं, जिन्होंने उनकी मर्यादा की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व लूटा दिया। इतिहास में ऐसे कई लाल हुए हैं, जिन्होंने अपनी जान से भी अधिक महत्व इस देश की आजादी को दिया। यही कारण है कि कृतज्ञ भारत उन्हें हमेशा याद रखता आया है और आगे भी रखेगा।भारतीयों ने ब्रितानियों की दासता से मुक्ति प्राप्त करने हेतु सर्वप्रथम प्रयास 1857 ईं. में किया था, जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नाम से भी जाना जाता है।  इस गदर की शुरूआत मेरठ से दस मई 1857 को कोतवाल धनसिहँ गुर्जर ने की ।

 अँग्रेज़ी सत्ता को नष्ट करने का पहला समूल प्रयास 1857 ई. में ही हुआ था, जिसमें न केवल क्रांतिकारियों ने अपितु भारतीय जनता ने भी खुलकर भाग लिया था। अँग्रेज़ और कुछ भारतीय चाटुकार इतिहासकार भले ही अपनी संतुष्टि के लिए सिपाही विद्रोह मानते हों, परंतु वास्तव में यह जन मानस का विद्रोह था। इसमें असंख्य लोग मारे गए। कुछ को भयंकर यातनाएँ दी गई, कुछ को ज़िंदा अग्नि देव का भेंट चढ़ा दिया गया, परंतु भारत भूमि इससे विचलित नहीं हुई।

जिन महानतम विभूतियों ने जीवन पर्यंत याद किया जाता है उनमें से एक थी मुजफ्फरनगर की कल्श्सान कुल की वीरांगना आशादेवी गुर्जराणी है।पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फनगर( अब शामली जिला ) के कल्श्सान खाप की वीर युवती  ( जन्म - 1829 ) का मानना था कि आजादी की लडाई मे सिर्फ सैनिको का लडना ही काफी नही है बल्कि समाज के हर तबके के लोगो को कंधे से कंधा मिलाकर जंगे आजादी मे शामिल होना चाहिए  । इस क्रान्तिकारी सोच के तहत गुर्जरो के गाव की इस साधारण सी गुर्जर महिला ने महिलाओ को सगठित कर अपनी सैना बना ली  । 

1857 के संग्राम मे उस वीरांगना युवती ने अग्रेजो को काफी मश्किलो मे डाला ओर आस - पास के क्षेत्रो मे अपना दबदबा कायम  करलिया ।
आशादेवी गुर्जराणी के संगठन की ताकत का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता हे कि सगठन की 250 महिला सैनिको की शहादत के बाद ही अग्रेज सेना आशादैवी को युद्धभूमि मे जिन्दा पकड सकी थी  । ग्यारह अन्य महिला सैनिको के साथ बर्बर अग्रेजो ने आशादेवी को फासी पर लटका दिया  । अपनी बहादुरी से सोये हुए भारत मे शोर्य ओर पराक्रम का आशादेवी गुर्जराणी ने एक बार फिर नया सचांर किया । 

Veerangna Asha Devi Gujari / वीरांगना आशा देवी गुर्जराणी

सन्दर्भ :--

सुरेश नीरव,  कादम्बिनी : 
अगस्त - 2006 पृष्ट - 82



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Monday 2 January 2017

उमराव सिंह परमार माणकपुरिया 1857 | Umrao Singh Manakpuria - 1857 Revolt

उमराव सिंह परमार गूर्जर, माणकपुर 1857 का गदर | Umrao Singh Parmar Gurjar (Manakpuria) - 1857 Revolt

Umrao Singh Parmar Gurjar - 1857 Mutiny


उत्तर प्रदेश के सहारनपुर क्षेत्र के लोगों ने सबसे पहले 1822-1825 ई0 राजा विजय सिंह गुर्जर व कल्याण सिंह गुर्जर के नेतृत्व में अंग्रेंजी राज को भारत को उखाड़े फैंकने का श्रीगणेश किया था। ऐसे ही 'धनसिंह कोतवाल के नेतृत्व मे 1857 की क्रान्ति की शूरूआत हुई। जैसे ही 1857 की क्रान्ति की ज्वाला धधकी सहारनपुर के गुर्जर अंग्रेंजी हकूमत से उनके साथ हुए अत्याचारों का बदला लेने के लिये उतावले हो गये । माणकपुर के निवासी उमराव सिंह को जो इस क्षेत्र के प्रभावशाली एवं दबंग व बहादुर व्यक्ति थे वहां की गुर्जर जनता ने उसे अपना राजा घोषित कर दिया ।उनका गोत्र परमार था l जिस प्रकार दादरी के गुर्जर राजा उमराव सिंह भाटी दादरी, राव कदम सिंह गूर्जर परीक्षितगढ़ की राजाज्ञाएं निकलती थी उसी प्रकार माणकपुर के उमराव सिंह गुर्जर की भी राजाज्ञाएं निकलने लगी। ’फिरंगी को मार भगाओ, देश को आजाद कराओ । इन्हें मालगुजारी मत दो, थाणे तहसील पर कब्जा करो, संगठित हो जाओ। इन राजाज्ञाओं का व्यापक असर क्षेत्र पर होने लगा । मालगुजारी राजा उपराव सिंह को दी जाने लगी । नुकड़, सरसावा, मंगलौर, पुरकाजी, बूढ़ा खेड़ी, सोढ़ौली, रणधावा, फतेहपुर, बाबूपुर, साॅपला, गदरदेड़ी, लखनौती पुरकाजी आदि गांवों के गूर्जरों ने संगठित होकर उमराव सिंह के नेतृत्व में सहारनपुर जिले के प्रशासन को एकदम ठप्पा कर दिया और प्रशासन पर क्रान्किारियों का कब्जा हो गया । गुर्जरों के साथ रांघड़ मुसलमान व पुण्डीर भी कन्धे से कंधा मिलाकर अंग्रेंज सरकार से टक्कर ले रहे थे । गंगोह की गुर्जर जनता ने फलुवा गुर्जर को अपना नेता बना कर इस क्षेत्र में भारी उपद्रव व अशान्ति पैदा कर दी थी।

नुकड़ तहसील, थाणा, मंगलौर में भी वही हाल, सरसावा पर भी अधिकार सहारनपुर के सुरक्षा अधिकारी स्पनकी तथा रार्बटसन के साथ राजा उमराव सिंह के नेतृत्व में डटकर टक्कर हुई । इस अंग्रेंज अधिकारियों ने गुर्जरों का दमन करने के लिए सेना का प्रयोग किया । गांवों पर बाकायदा तैयारी कर के सेना, स्पनकी और राबर्टसन के नेतृत्व में चढ़ाई करती थी, लेकिन गुर्जर बड़े हौंसले से टक्कर लेते थे उपरोक्त जिन गांवों का विशेषकर जिक्र किया है उनके जवाबी हमले भी होते रहे । आधुकिनतम हथियारों से लैस अंग्रेंजी सेना व उनके पिटू भारतीय सेना ने इन गांवों को जलाकर राख कर दिया, इनकी जमीन जायदाद जब्त की गई । माणिकपुर के राजा उमराव सिंह, गंगोह के फतुआ गुर्जर तथा इनके प्रमुख साथियों को फांसी दी गई और अनेक देशभक्त गुर्जरों को गांवों में ही गोली से उड़ा दिया गया, या वृक्षों पर फांसी का फन्दा डालकर लटका दिया ।

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शहीद झंडु सिंह नंबरदार 1857 | Saheed Jhandu Singh Nambardar - Great Freedom Fighter of 1857 Revolt

शहीद झंडु सिंह नंबरदार 1857 | Saheed Jhandu Singh Nambardar - Great Freedom Fighter of 1857 Revolt


शहीद झंडु सिंह नंबरदार 1857 | Saheed Jhandu Singh Nambardar - Great Freedom Fighter of 1857 Revolt


10 मई 1857 को मेरठ में क्रान्ति के विस्फोट के बाद मेरठ के आस-पास स्थित गुर्जरो के गांवों ने अंग्रेजी राज की धज्जिया उड़ा दी। अंग्रेजों ने सबसे पहले उन गांवों को सजा देने पर विचार किया जिन्होंने 10 मई की रात को मेरठ में क्रान्ति में बढ़ चढ़कर भाग लिया था और उसके बाद मेरठ के बाहर जाने वाले आगरा, दिल्ली आदि मार्गो को पूरी तरह से रेाक दिया था। जिसकी वजह से मेरठ का सम्पर्क अन्य केन्द्रों से कट गया था। इस क्रम में सबसे पहले 24 मई को 'इख्तयारपुर' पर और उसके तुरन्त बाद 3 जून को 'लिसाड़ी' , 'नूर नगर' और 'गगोल गांव' पर अंग्रेजों ने हमला किया। ये तीनों गांव मेरठ के दक्षिण में स्थित 3 से 6 मील की दूरी पर स्थित थे। लिसारी और नूरनगर तो अब मेरठ महानगर का हिस्सा बन गए हैं। गगोल प्राचीन काल में श्रषि विष्वामित्र की तप स्थली रहा है और इसका पौराणिक महत्व है।  नूरनगर, लिसाड़ी और गगोल के किसान उन क्रान्तिवीरों में से थे जो 10 मई 1857 की रात को घाट, पांचली, नंगला आदि के किसानों के साथ कोतवाल धनसिंह गुर्जर के बुलावे पर मेरठ पहुँचे थे। अंग्रेजी दस्तावेजों से यह साबित हो गया है कि धनसिंह कोतवाल के नेतृत्व में सदर कोतवाली की पुलिस और इन किसनों ने क्रान्तिकारी घटनाओं का अंजाम दिया था। इन किसानों ने कैण्ट और सदर में भारी तबाही मचाने के बाद रात 2 बजे मेरठ की नई जेल तोड़ कर 839 कैदियों को रिहा कर दिया। 10 मई 1857 को सैनिक विद्रोह के साथ-साथ हुए इस आम जनता के विद्रोह से अंग्रेज ऐसे हतप्रभ रह गए कि उन्होंने अपने आप को मेरठ स्थित दमदमें में बन्द कर लिया। वह यह तक न जान सके विद्रोही सैनिक किस ओर गए हैं ?  इस घटना के बाद नूरनगर, लिसाड़ी, और गगोल के क्रान्तिकारियों बुलन्दशहर आगरा रोड़ को रोक दिया और डाक व्यवस्था भंग कर दी। आगरा उस समय उत्तरपश्चिम प्रांत की राजधानी थी। अंग्रेज आगरा से सम्पर्क टूट जाने से बहुत परेषान हुए। गगोल आदि गाँवों के इन क्रान्तिकारियों का नेतृत्व गगोल के झण्डा सिंह गुर्जर उर्फ झण्डू दादा कर रहे थे। उनके नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने बिजली बम्बे के पास अंग्रेज़ी  सेना के एक कैम्प को ध्वस्त कर दिया था। आखिरकार 3 जून को अंग्रेजो ने नूरनगर लिसाड़ी और गगोल पर हमला बोला। अंग्रेजी सेना के पास काराबाइने थी और उसका नेतृत्व टर्नबुल कर रहा था। मेरठ शहर के कोतवाल बिशन सिंह, जो कि रेवाड़ी के क्रान्तिकारी नेता राजा तुलाराव का भाई था, को अंग्रेजी सेना को गाईड का काम करना था। परन्तु वह भी क्रान्ति के प्रभाव में आ चुका था। उसने गगोल पर होने वाले हमले की खबर वहां पहुँचा दी और जानबूझ कर अंग्रेजी सेना के पास देर से पहुँचा। इसका नतीजा भारतीयों के हक में रहा, जब यह सेना गगोल पहुँची तो सभी ग्रामीण वहाँ से भाग चुके थे। अंग्रेजो ने पूरे गाँव को आग लगा दी। बिशन सिंह भी सजा से बचने के लिए नारनौल, हरियाणा भाग गए जहाँ वे अग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हो गए।कुछ दिन बाद अंग्रेजों ने फिर से गगोल पर हमला किया और बगावत करने के आरोप में 9 लोग रामसहाय, घसीटा सिंह, रम्मन सिंह, हरजस सिंह, हिम्मत सिंह, कढेरा सिंह, शिब्बा सिंह बैरम और दरबा सिंह को गिरफ्तार कर लिया। इन क्रान्तिवीरों पर राजद्रोह का मुकदमा चला और दषहरे के दिन इन 9 क्रान्तिकारियों को चैराहे पर फांसी से लटका दिया गया। तब से लेकर आज तक गगोल गांव में लोग दशहरा नहीं मनाते हैं। इन शहीदों की याद में गांववासियों ने, 1857 की क्रान्ति के गवाह के रूप में आज भी उपस्थित प्राचीन पीपल के पेड़ के नीचे, एक देवस्थान बना रखा है। जहाँ दशहरे के दिन अपने बलिदानी पूर्वजों को श्रद्धापूर्वक याद करते हैं। सरकार आज भी इस ओर से उदासीन है गगोल में न कोई सरकारी स्मारक है न ही कोई ऐसा सरकारी महाविद्यालय, अस्पताल आदि हैं जो इन शहीदों को समर्पित हो।
Jhandu Singh Gurjar Nambardar - 1857 revolution


                                                                                                  संदर्भ


1. डनलप, सर्विस एण्ड एडवैन्चर आफ खाकी रिसाला इन इण्डिया इन 1857-58।
2. नैरेटिव आफ इवैनटस अटैन्डिग दि आउटब्रेक आफ डिस्टरबैन्सिस एण्ड रैस्टोरेशन आफ अथारिटी इन दि डिस्ट्रिक्ट आफ मेरठ इन 1857-58
3. एरिक स्ट्रोक, पीजेन्ट आम्र्ड।
4. एस0 ए0 ए0 रिजवी, फीड स्ट्रगल इन उत्तर प्रदेश  खण्ड-5
5. ई0 बी0 जोशी, मेरठ डिस्ट्रिक्ट गजेटेयर।
6. आचार्य दीपांकर, स्वाधीनता संग्राम और मेरठ, जनमत प्रकाशन, मेरठ 1993





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Friday 27 May 2016

अमर शहीद - राव कदम सिंह गुर्जर | Rao Kadam Singh Gurjar (1857 Revolt)

1857 क्रान्ति के महानायक अमर शहीद - राव कदम सिंह गुर्जर

A Great Freedom Fighter - Rao Kadam Singh Gurjar 
1857 ई0 के स्वतंत्रता संग्राम मे राव कदम सिंह गुर्जर मेरठ के पूर्वी क्षेत्र में क्रान्तिकारियों का नेता था।उसके साथ 10,000 क्रान्तिकारी थे। ,जो कि प्रमुख रूप से मवाना,हस्तिनापुर और बहसूमा क्षेत्र के थे।
ये क्रान्तिकारी कफन के प्रतीक के तौर पर सिर पर सफेद पगड़ी बांध कर चलते थे।
मेरठ के तत्कालीन कलक्टर 'आर0 एच0 डनलप' द्वारा मेजर जनरल हैविट को 28 जून 1857 को लिखे पत्र से पता चलता है कि गुर्जर क्रान्तिकारियों ने पूरे जिले में खुलकर विद्रोह कर दिया और परीक्षतगढ़ के राव कदम सिंह गुर्जर को पूर्वी परगने का राजा घोषित कर दिया।
 राव कदम सिंह और दलेल सिंह गुर्जर के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने परीक्षतगढ़ की पुलिस पर हमला बोल दिया और उसे मेरठ तक खदेड दिया।उसके बाद, अंग्रेजो से सम्भावित युद्ध की तैयारी में परीक्षतगढ़ के किले पर तीन तोपे चढ़ा दी। ये तोपे तब से किले में ही दबी पडी थी जब सन् 1803 में अंग्रेजो ने दोआब में अपनी सत्ता जमाई थी।
इसके बाद हिम्मतपुर ओर बुकलाना के क्रान्तिकारियों ने राव कदम सिंह गुर्जर के नेतृत्व में गठित क्रान्तिकारी सरकार की स्थापना के लिए अंग्रेज परस्त गाॅवों पर हमला बोल दिया और बहुत से गद्दारों को मौत के घाट उतार दिया। क्रान्तिकारियों ने इन गांव से जबरन लगान वसूला।राव कदम सिंह गुर्जर  बहसूमा परीक्षतगढ़ रियासत के अंतिम राजा नैन सिंह गुर्जर नांगडी के भाई का पौत्र था।
राजा नैन सिंह गुर्जर के समय रियासत में 349 गांव थे और इसका क्षेत्रफल लगभग 800 वर्ग मील था। 1818 में नैन सिंह गुर्जर  के मृत्यू के बाद अंग्रेजो ने रियासत पर कब्जा कर लिया था। इस क्षेत्र के लोग पुनः अपना राज चाहते थे, इसलिए क्रान्तिकारियों ने कदम सिंह गुर्जर को अपना राजा घोषित कर दिया।
10 मई 1857 को कोतवाल धनसिंह गुर्जर के नेतृत्व में मेरठ में हुए सैनिक विद्रोह की खबर फैलते ही मेरठ के पूर्वी क्षेत्र में गुर्जर क्रान्तिकारियों ने राव कदम सिंह  गुर्जर के निर्देश पर सभी सड़के रोक दी और अंग्रेजों के यातायात और संचार को ठप कर दिया।
मार्ग से निकलने वाले सभी यूरोपियनो को लूट लिया। मवाना-हस्तिनापुर के क्रान्तिकारियों ने राव कदम सिंह के भाई दलेल सिंह, पिर्थी सिंह और देवी सिंह के नेतृत्व में बिजनौर के विद्रोहियों के साथ साझा मोर्चा गठित किया और बिजनौर के मण्डावर, दारानगर और धनौरा क्षेत्र में धावे मारकर वहाँ अंग्रेजी राज को हिला दिया। इनकी अगली योजना मण्डावर के क्रान्तिकारियों के साथ बिजनौर पर हमला करने की थी। मेरठ और बिजनौर दोनो ओर के घाटो, विशेषकर दारानगर और रावली घाट, पर राव कदमसिंह  गुर्जर का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। ऐसा प्रतीत होता है कि कदम सिंह विद्रोही हो चुकी बरेली बिग्रेड के नेता बख्त खान के सम्पर्क में था क्योकि उसके समर्थकों ने ही बरेली बिग्रेड को गंगा पर करने के लिए नावे उपलब्ध कराई थी।इससे पहले अंग्रेजो ने बरेली के विद्रोहियों को दिल्ली जाने से रोकने के लिए गढ़मुक्तेश्वर के नावो के पुल को तोड दिया था।27 जून 1857 को बरेली बिग्रेड का बिना अंग्रेजी विरोध के गंगा पार कर दिल्ली चले जाना खुले विद्रोह का संकेत था। मेरठ में क्रान्तिकारियों ने कदम सिंह गुर्जर को राजा घोषित किया और खुलकर विद्रोह कर दिया।
28 जून 1857 को मेजर नरल हैविट को लिखे पत्र में कलक्टर डनलप ने मेरठ के हालातो पर चर्चा करते हुये लिखा कि यदि हमने शत्रुओ को सजा देने और अपने दोस्तों की मदद करने के लिए जोरदार कदम नहीं उठाए तो जनता हमारा पूरी तरह साथ छोड़ देगी और आज का सैनिक और जनता का विद्रोह कल व्यापक क्रान्ति में परिवर्तित हो जायेगा।
मेरठ के क्रान्तिकारी हालातो पर काबू पाने के लिए अंग्रेजो ने मेजर विलयम्स के नेतृत्व में खाकी रिसाले का गठन किया।
जिसने 4 जुलाई 1857 को पहला हमला पांचली गांव पर किया। इस घटना के बाद राव कदम सिंह गुर्जर ने परीक्षतगढ़ छोड दिया और बहसूमा में मोर्चा लगाया,जहाँ गंगा खादर से उन्होने अंग्रेजो के खिलाफ लडाई जारी रखी।18 सितम्बर को राव कदम सिंह गुर्जर के समर्थक क्रान्तिकारियों ने मवाना पर हमला बोल दिया और तहसील को घेर लिया।खाकी रिसाले के वहाँ पहुचने के कारण क्रान्तिकारियों को पीछे हटना पडा। 20 सितम्बर को अंग्रेजो ने दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया।हालातों को देखते हुये राव कदम सिंह गुर्जर एवं दलेल सिंह गुर्जर  अपने हजारो समर्थको के साथ गंगा के पार बिजनौर चले गए जहाँ नवाब महमूद खान के नेतृत्व में अभी भी क्रान्तिकारी सरकार चल रही थी। थाना भवन के काजी इनायत अली और दिल्ली से तीन मुगल शहजादे भी भाग कर बिजनौर पहुँच गए।
राव कदम सिंह गुर्जर के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने बिजनौर से नदी पार कर कई अभियान किये। उन्होने रंजीतपुर मे हमला बोलकर अंग्रेजो के घोडे छीन लिये।

5 जनवरी 1858 को नदी पार कर मीरापुर मुज़फ्फरनगर मे पुलिस थाने को आग लगा दी। इसके बाद हरिद्वार क्षेत्र में मायापुर गंगा नहर चौकी पर हमला बोल दिया।कनखल में अंग्रेजो के बंगले जला दिये। इन अभियानों से उत्साहित होकर नवाब महमूद खान ने कदम सिंह एवं दलेल सिंह आदि के साथ मेरठ पर आक्रमण करने की योजना बनाई परन्तु उससे पहले ही 28 अप्रैल 1858 को बिजनौर में क्रान्तिकारियों की हार हो गई और अंग्रेजो ने नवाब को रामपुर के पास से गिरफ्तार कर लिया। उसके बाद बरेली मे मे भी क्रान्तिकारी हार गए।

संदर्भ
1. डनलप, सर्विस एण्ड एडवैन्चर ऑफ खाकी रिसाला इन इण्डिया इन 1857-58।
2. नैरेटिव ऑफ इवैनटस अटैन्डिग दि आउटब्रेक ऑफ डिस्टरबैन्सिस एण्ड रैस्टोरशन ऑफ अथारिटी इन दि डिस्ट्रिक्ट ऑफ मेरठ इन 1857-58।
3. एरिक स्ट्रोक, पीजेन्ट आम्र्ड।
4. एस0 ए0 ए0 रिजवी, फीड स्ट्रगल इन उत्तर प्रदेश खण्ड-5
5. ई0 बी0 जोशी, मेरठ डिस्ट्रिक्ट गजेटेयर।





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Thursday 19 May 2016

शहीद सूबा देवहंस कसाना गुर्जर / Suba Devhansh Kasana Gurjar

अमर शहीद - सूबा देवहंस कसाना गुर्जर 

Suba Devhansh Kasana Gurjar - A Great Freedom Fighter 

देवहंस के पिता का नाम बीजासिंह गुर्जर था। इनका गांव कुदिन्ना राजस्थान के धौलपुर तथा बाड़ी के बीच तालाब शाही से 3 मील पूर्व की ओर धनी के बीच बसा हुआ है। यह कसाने गोत्र के गूर्जरों का गांव है। आगरा के सैयद से लेकर शिवपुरी के सवनवादा और नरवर तक तथा भिण्ड जिले के गुरीखा गांव से लेकर दतिया की तलहटी तक गूर्जराधार का इलाका कहलाता है। मुरैना जिले का पूर्व नाम तंवरधार और इससे लगा इलाका भदावर कहलाता है। इस प्रकार जिला मुरैना, ग्वालियर, भिण्ड, शिवपुरी, दतिया जिला (मध्य प्रदेश) के तमाम गांव जातीय बाहुल्यता के कारण गूर्जरधारा कहलाते हैं। प्रादेशिक सीमाएं (उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश) इन के सामाजिक संगठन और गुर्जर संस्कृति के मार्ग में बाधा नहीं है। देवहसं के गोत्र कसाना के सौगांव इस गूजरधार के अन्र्तगत आते हैं।

कुदिन्ना गांव वर्तमान धौलपुर (राजस्थान) जिले के अन्र्तगत है। किन्तु इसका परिवेश उत्तर प्रदेश के आगरा, मध्य प्रदेश के मुरैना, ग्वालियर, शिवपुरी, भिण्ड, दतिया के गूजराधारा से निर्मित है। गूजराधार का क्षेत्र अधिकतर पहाड़ी, उबड़-खाबड़ तथा घने जंगलों से आच्छादित है। गूजरों का जब राजनैतिक पतन हुआ तो ये जंगलों, बीहड़ों में सिर छिपाने चले गये गये और अपनी खोई हुई शक्ति को बटोरने लगे लेकिन इन्होने सिर झुकाना पसन्द नहीं किया । पंद्रहवीं शताब्दी में यवनों के तूफानी आक्रमणों से इस क्षेत्र के गुर्जरों ने टक्कर ली थी छापामार युद्ध पद्धति गुर्जरों की खोज है जिसे कालान्तर में शिवाजी ने कुछ परिष्कृत करके निजामशाही आदिलशाही, मुगलशाही तथा कुतुबशाही से डटकर टक्कर ली थी और हिन्द स्वराज की स्थापना की थी । यही कुदिन्ना गांव मुगलिग हकूमत के दौरान लड़ाकू गुर्जरों का केन्द्र था। मुरैना के बमरौली, इटावली , टिक्होली, घुरैया बसई चैखेटी और मृगनयनी की गंाव रोराराई भी लड़ाकू गुर्जरों के केन्द्र थे । इन गांवों में कसाने, कोरी, तोमर, छावड़ी, घुरया, मावई व चन्देले गोत्र के गुर्जरों का प्रभुत्व तथा बाहुल्य है।

देवहंस का जन्म चैतवदी आठे सम्वत 1869 की रात को हुआ था। ये बीजासिंह की चौथी संतान थे । बीजासिंह की आर्थिक स्थिति अति सामान्य थी। बाड़ी के पुरोहित ने बिना दक्षिणा के ग्रहराशि व नाम बताने से इंकार कर दिया था। बीजासिंह ने स्वयं अपने इस बेटे का नाम देवहंस रखा । इससे पहले लड़के का नाम रामहंस था। बीजासिंह के पास गाय भैंसे बहुत थी। एक बार इन्होने अपनी 10 भैंसे व 3 गायों की रक्षा हेतु शेर को मार डाला था। शेरनी ने इस का बदला लेने के लिए बीजासिंह पर हमला किया उसे भी यमलोक पहुंचा दिया । बीजासिंह की वीरता की कहानी की चर्चा सारे क्षेत्र में फैल गई तालाबशाही के पठान हैदरखां ने बीजासिंह का सम्मान किया और उसे तलवार भेंट में दी । देवहंस उस समय दुधमुंहा शिशु था लेकिन उसके हृदय में अपने पिता की वीरता की छाप उसी समय से अंकित हो गई थी ।

देवहंस जब एक वर्ष के थे । इनकी मां बाजरे के खेत में काम कर रही थी। देवहंस को खेत की मेढ़ पर डलिया में बिछौना कर सुला कर खेत में बीजासिंह व उनकी पत्नी खटानी व्यस्त हो गये । रामहंस 5 वर्ष का था उसे देखभाल को छोड़ गये । रामहंस खेलता हुा दूसरे मेंढ़ तक चला गया । मां की नजर जब देवहंस की तरफ गई तो रामहंस नजर नहीं आया। वह दौड़ कर देवहंस को देखने आई तो देखा कि देवहंस एक विशैले नाग से खेल रहा है। नाग फन फैलाये देवहंस से खेल रहा है बच्चा खुशी से किलकारी मार रहा है। खटानी गूजरी सहम गई और उसने बीजासिंह को बुलाया । वह भी इस अदभूत दृश्य को देखकर हत्प्रभ रह गये । दोनों ने अपने इष्टदेव का स्मरण किया और नागदेवता आलोप हो गया ।
बीजासिंह ने भविष्यवाणी की यदि बच्चा जी गया तो धरती पर राज करेगा । बच्चे पर नागदेव की विशेष कृपा है। कौन जानता था कि बाप की भविष्यवाणी एक दिन सच साबित होगी और देवहंस एक क्रान्तिकारी देशभक्त योद्धा बनेगा ।
देवहंस जब 8-10 वर्ष के थे खेल रहे थे । प्रसिद्ध ज्योतिषी उल्लिका मिश्र कहीं से पधारे थे । वे बच्चों के खेल को देख रहे थे । देवा इस खेल में विजयी रहा । होनहार विरवान को होते चिकने पात । देवहंस को देखकर ज्योतिषी मिश्र ने भविष्यवाणी की, यह बालक भाग्यशाली है एक दिन बिना तिलक का राजा बनेगा । मिश्र जी तीन दिन कुदिन्ना गांव में ठहरे और भावी सूवा देवहंस की जन्मपत्री बनाकर बीजासिंह को दे दी । ग्राम निवासियों के स्वप्न में भी देवहंस के राजा बनने की कल्पना तक नहीं थी और मिश्रजी को लोगों ने ठग समझा यह कर मजाक उड़ाया कि बीजासिंह के घर में बीज तक तो है नहीं राजा बनेगा इसका छोरा पुरूष के भाग्य का किस को पता है।

देवहंस जब बारहवर्ष के हुए तो अपने घरेलू काम धंधे में पिता का हाथ बंटाने लगे । गाय भैंसों को चराने का काम इन्हें पसन्द आया । दिन भर जंगल में खेलकूद, कुश्ती और ग्रामीण गाने गाते रहते । थोड़े ही दिन में ग्वालों की एक गायक टोली बना ली जो देवा की टोली के नाम से मशहूर हो गई । तालाबशाही में हैदरखां पठान के पास आगरे का मशहूर मल्ल चन्दू रहता था। उससे देवा ने मल्ल विद्या, लाठी, बनैती की कला सीखी और देवहंस की बाड़ी, बरोड़ी , धौलपुर, राजाखेड़ा, सेंपऊ-आगरा, मथुरा के दंगलेां में कुश्ती लड़ने की धाक जम गई । तालाबशाही पर गायन के आयोजनों में भी उसे गान विद्या में प्रसिद्ध कर दिया । वह अपने इष्ट बाबू महाराज के भजन गाता था। लोग उसके भजन सुन कर मुग्ध हो जाते थे ।
वह हर वर्ष बाड़ी के बारह भाईयों के मेले में जाता था । वहंा पर भी वह बाबू महाराज के गीत सुनाया करता था। अब देवहंस प्रसिद्ध पहलवान और लोकप्रिय गायक के रूप में जाना जाने लगा था ।
आसपास के ग्रामीण शेर और चीतों द्वारा उनके पशुओं के वध के कारण बहुत आंतकित और परेशान हो गए थे । देवहंस ने आखेट करना शुरू थोड़ी उम्र से हीे कर दिया था । जब कोई शेर किसी पशु को मार खाता तो ग्रामीण देव के पास
पहुंचते थे और देवा जब तक शेर या चीते का वध न कर देता तब तक दम नहीं लेता था। उसने अपनी ग्वालियों की टोली के साथ मिलकर एक नहीं अनेक शेर और चीतों का वध करके किसानों के दुधारू और उपयोगी पशुओं की रक्षा की जिससे देवा का यश सारे क्षेत्र में फैल गया । देवा की बहादुरी की प्रशंसा सुनकर एक बार लाट साहब ने देवा को तालाब शाही पर बुलवाया था और देवा से मिलकर प्रसन्नता प्रगट की थी ।

बाड़ी के मेले में देवा बाबू महाराज के भजन गा रहा था। हजारों की भीड़ अपने इष्ट देव बाबू महाराज की जय के नारे लगा रही थी। तभी धौलपुर नरेश राणा भगवत सिंह अपनी रानी के साथ हाथी पर सवार वहां से गुजरे लेकिन भीड़ ने राजा के स्वागत करने की बजाये देवा के भजन सुनने में दतचित रहे । राजा व रानी देवा के भजन सुनकर सम्मोहित से हो गए और दोनों ने बीजासिंह से इस किशोर को अपने साथ धौलपुर ले जाने का आग्रह जिसे बीजासिंह ने भविष्यवाणी के आधार पर स्वीकार कर लिया और देवहंस अब कुदिन्ना की झोपड़ी से धौलपुर के महलों में पहुंच गए ।

राणा भगवत सिंह और रानी भवाजू देवहंस को अपने महलों में ले आए और उन्होने सरकारी फरमान जारी किया कि देवहंस को राज दरबार का कवि व गायक बनाया जाता है। देवहंस के शरीर सौष्टव व वीरता की प्रशंसा सुनकर राणा ने उसे अंग्रेंजी फौज में भर्ती कराके प्रशिक्षण दिलाया । अंग्रेंजों को यह मालूम नहीं था कि यह सैनिक टेªनिंग लेकर 1857 ई0 में आगरे क्षेत्र से उनके राज्य को समाप्त कर देगा । धौलपुर के राणा भगवत सिंह ने अपनी फौज का उसे सर्वोच्च सेनापति बना दिया। देवहंस ने अश्वारोही दल बढ़ा कर फौजी छावनी का रूप दे दिया और देवहंस टंटकोर नामक की अलग ट्रांसपोर्ट कमान कायम की । जिसे धौलपुर के अंग्रेंज पोलिटिकल ऐजेंट ने वेलेजली की सहायक प्रथा नीति के विरूद्ध माना था। जिसकी शिकायत उसने बड़े लाट साहब से की थी ।

राणा भगवतसिंह व देवहंस करौली देवी के दर्शन करके झिरी के बाग में पड़ाव डाले हुए थे । झिरी सरमथुरा के राजा ने दोस्ती करने के लिए राणा और देवहंस को दावत पर बुलाया । झिरी सरमथुरा के राजा राणा को चान्दी के थाल में भोजन परोसा और देवहंस को पातर में परोसा । इस गलत व्यवहार पर राणा भगवत सिंह ने आपति की तो सरमथुरा के राजा ने जवाब दिया हमारे यहंा गूजरों को ऐसे ही खिलाते हैं। देवहंस ने भोजन के ग्रास को माथे लगाकर कहा, तुम्हें एक दिन ऐसे ही खिलाउंगा । देवहंस और राणा वापिस आ गए । इस तौहीन का कुप्रभाव सारी गूजराधार पर पड़ा। देवहंस ने छः महीने में गूजरों की विशेष फौज तैयार की उसे प्रशिक्षण देकरर धौलपुर की फौज साथ लेकर सरमथुरा पर धावा बोल दिया । किले को ध्वस्त करके धूल में मिला दिया और राजा को खम्बे से बांध कर पातर में खाना परोस कर पूछा गूजरों को कैसे खाना खिलाते हैं और उसे कैद करके धौलपुर नरेश के पिता कीर्तिसिंह की पाग के साथ (जो इन्होने कभी रख ली थी और मालगुजारी देने से भी मना कर दिया था) धौलपुर के राणा भगवत सिंह के सम्मुख पेश कर दिया था। झिरी सरमथुरा के किले की किवाड़ उतार लाए थे जो बाद में इन्होने अपने किले देवहंस गढ़ में लगाए गए थे जो आज भी देवहंस की विजय गाथा के प्रतीक हैं।

झिरी सरमथुरा की विजय के पश्चात राणा भगवतसिंह ने देवहंस को धौलपुर राज्य का सूबा नियुक्त किया और धौलपुर रियासत के जागीरदारों ने सर्वोच्च स्थान दिया । ग्राम डरेरा, बागधर, सहेड़ी तथा सामलिया का पूरा की जागीर बतौर वीरोचित सम्मान में दी, जो गांव सरमथुरा से जीते थे वे भी उसे ही दे दिए गए । धौलपुर में देवहंस का राजकीय सम्मान किया गया। दीपावली के त्यौहार की तरह दीप जलाए गए । देवहंस धौलपुर का दीवान और अपनी जागीर का राजा बन गया और उसके पिता बीजासिंह उल्लिका मिश्र की भविष्यवाणी सच हो गई और वह सूबा देवहंस के नाम से प्रसिद्ध हो गया ।

सूबा देवहंस ने देवहंसगढ़ नामका किला बनाया जो धौलपुर से लगभग 15 मील दूर है। किला बहुत भव्य एवं सुन्दर है। किले का मुख्य द्वार मुगलकालीन जैसा है परन्तु उसकी बनावट भारतीय हिन्दू किलों के समान है। द्वार पर द्वारपालों के लिए प्रकोष्ट बने हैं। इस द्वार के उपर पंचखंडा महल जो दरबार हाल रहा होगा । दुर्ग लाल पत्थर का बना है, खम्भों पर नक्काशी शहतीर डालकर पटिटयों से छत बनाई गई है। शिल्पकला देखते ही बनती है। सारे चैक में चैकोर बावड़ी है जिसमें पानी भरा हुआ है। इस चैक से लगी के बाद एक तीन हवेली है जो रनिवास और रहवास के लिए काम में लाई जाती थी हवेली के अन्दर अनाज के लिए पत्थर की कोठी बनी हुई है। किले की चारदीवारी 20 फुट चैड़ी हैं चारों और गुम्बज है। किले के पश्चिम में अर्ध कलाकार एक लम्बा चैड़ा खाल है जिसे उतर पूर्व की ओर बांध की तरह बांधा है। इसमें पानी भरा रहता था। पूर्व की ओर भी एक तालाब है। दक्षिण का भाग खुला है। सामरिक दृष्टि से सूबा देवहंस का किला बहुत महत्वपूर्ण है। यह किला देवहंस के गांव कुदिन्नना से लगभग 3 मील दूर है।

देवहंस ने 1857 की क्रान्ति में बढ़ चढ़ कर भाग लिया था। आगरा जिले की 3/4 तहसीलों पर अधिकार करके इस क्षेत्र में अंग्रेंजी राज को समाप्त सा कर दिया था। दमनचक्र के दौरान अंग्रेज हकूमत ने अपने वफादार जमीदार हर नारायण की सहायता लेकर देवहंस को हराना चाहा मगर उसे स्वयं नीचा देखना पड़ा । इस लड़ाई में 3000 बन्दूकें, 2 स्टेनगन तथा 2 लाख की सम्पति सूबा देवहंस के हाथ लगी । इण्डियन एम्पायर के लेखक मार्टिन्स ने इस सम्बन्ध में लिखा है गुर्जरों के सिवाय हिन्दू जनता में किसी ने भी विद्रोहियों का साथ नहीं दिया । विद्रोह की आग घंटों में आगरा से दिल्ली , सहारनपुर, बुलन्दशहर तक सामूहिक रूप से फैल गई । धौलपुर के सूबा देवहंस ने आगरे की तहसीलों पर कब्जा कर लिया ।





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शहीद दरियाव सिंह गुर्जर - 1857 क्रान्ति के महानायक / Saheed Dariyaav Singh Gurjar

1857 क्रान्ति के महानायक अमर शहीद दरियावसिंह नागर गुर्जर

Dariyaav Singh Gurjar - A Great Freedom Fighter of 1857 Revolt 
दरियाव सिंह गुर्जर बहुत ही वीर,साहसी थे इनके डर के चलते अंग्रेजी सेना भी इलाके में नही आती थी। ये नागर (नांगडी) गौत्र के वीर गुर्जर थे।इनका जन्म दनकौर (उ.प्र) के निकट ग्राम जुनैदपुर मे हुआ था। जो अब वर्तमान मे ग्रेटर नौएडा क्षेत्र मे आता है।
 और 1857 के महानायको मे से एक थे। बुलन्दशहर के काले आम का खूनी दांश्ता को भला कौन नही जानता। जिसपर सैकडो वीर गुर्जरो को लटकाया गया। उस खुनी संग्राम मे एक नाम दरियाव सिंह गुर्जर का भी था । इनके नेत्रत्व मे आसपास के ग्रामीणो गुर्जरो ने अंग्रेजी सैना से लगातार कई दिन युध्द किए और अंग्रेजी हुकुमत से अपना लोहा मनवाया। इनके गाँव जुनैदपुर के ठीक सामने कई अंग्रेजो की कोठीयाँ और किले बने थे जो आज भी मौजूद है।लेकिन दरियाव सिंह गुर्जर के खौफ से अंग्रेजो की इलाके मे घुसने की भी हिम्मत नही होती थी । दरियाव सिंह की 1857 के स्वतंत्रा संग्राम मे महत्वपूर्ण भूमिका रही थी।10 मई को मेरठ से 1857 की जन-क्रान्ति की शुरूआत कोतवाल धनसिंह गुर्जर द्वारा हो चुकी थी । दरियाव सिंह और उनके नेत्रत्व मे ग्रामीण क्रांतिकारियों ने 1857 के गदर मे अंग्रेजी हुकुमत के छक्के छुड़ा दिए थे।तत्कालीन राष्टृीय भावना से ओतप्रोत दरियाव सिंह गुर्जर ने आसपास के ग्रामीणो को प्रेरित किया। दूसरी तरफ दादरी रिसायत के राजा उमरावसिंह गुर्जर ने भी आसपास के सभी गाँव के ग्रामीणो को एकत्र करलिया था और फिर गुर्जरो ने 12 मई 1857 को सिकन्द्राबाद तहसील पर धावा बोल दिया। वहाँ के हथ्यार और खजानो को अपने अधिकार मे कर लिया। इसकी सूचना मिलते ही बुलन्दशहर से सिटी मजिस्ट्रेट सैनिक बल सिक्नद्राबाद पहुँच गया। और दरियाव सिंह और उनकी क्रान्तिकारी सैना ने अंग्रेजो की काफी जनहानी की। लेकिन दरियाव सिंह गुर्जर समेत पांच वीर गुर्जर पकडे गये। उनको बंदी बना लिया गया और 14 मई 1857 को बुलंदशहर में काला आम पर फांसी दी गई। लेकिन ये खुनी जंग यहा नही रूकी। उसके बाद भी 7 दिन तक क्रान्तिकारी सैना ने उमराव सिंह गुर्जर के नेत्रत्व अंग्रेज सैना से ट्क्कर लेती रही । अंत मे 19 मई को सश्स्त्र सैना के सामने क्रान्तिकारी वीरो को हथियार डालने पडे 46 लोगो को बंदी बनाया गया । उमरावसिंह गुर्जर बच निकले । इस क्रान्तिकारी सैना मे गुर्जर समुदाय की मुख्य भूमिका होने के कारण उन्हे ब्रिटिश सत्ता का कोप भोजन होना पडा।उमरावसिंह गुर्जर अपने दल के साथ 21 मई को बुलन्दशहर पहुचे एवं जिला कारागार पर घावा बोलकर अपने सभी राजबंदियो को छुडा लिया । बुलन्दशहर से अंग्रेजी शासन समाप्त होने के बिंदु पर था लेकिन बाहर से सैना की मदद आ जाने से यह संभव नही हो सका 
हिंडन नदी के तट पर 30 व 31 मई को क्रान्तिकारी सैना और अंग्रेजी सैना के बीच एक ऐतिहासिक भीषण युद्ध हुआ। जिसकी कमान क्रान्तिनायक धनसिहँ गुर्जर, राव उमराव सिहँ गुर्जर, राव रोशन सिहँ गुर्जर व दरियाव सिंह गुर्जर के हाथ मे थी। इस युद्ध में अंग्रेजो को मुहँ की खानी पडी थी।
26 सितम्बर, 1857 को कासना-सुरजपुर के बीच उमरावसिंह की अंग्रेजी सैना से भारी टक्कर हुई । लेकिन दिल्ली के पतन और बाकी राज्यो के क्रान्ति मे हिस्सा ने लेने के कारण क्रान्तिकारी सैना का उत्साह भंग हो चुका था । भारी जन हानी के बाद क्रान्तिकारी सैना ने पराजय श्वीकार करली । उमरावसिंह गुर्जर को गिरफ्तार कर लिया गया । इस जनक्रान्ति के विफल हो जाने पर बुलंदशहर के काले आम पर 
80 वीर गुर्जर और उनकी नेत्र्तव मे हजारो क्रान्तिकारी शहीद हुए इनमे किसी को हाथी के पैर से कुचलवाया तो किसी को फांसी पर लटकाया । राजा राव उमराव सिहँ गुर्जर, राव रोशन सिहँ गुर्जर, राव बिशन सिहँ गुर्जर और सैकडो वीरो को भी बुलन्दशहर मे कालेआम के चौहराहे पर फाँसी पर लटका दिया गया ।

वर्तमान मे दरियाव सिंह गुर्जर के नाम से चौक बनाया गया है। और उनके नाम रोड का नामकरण किया गया है। (दरियाव सिंह गुर्जर मार्ग) और हर साल इनके नाम से बडे स्तर पर कुश्ती और मेले का आयोजन होता है। और उस वक्त जगह जगह इनके पोस्टर छपे हुए आप देख सकते है। ये बहुत ही अच्छा कार्य हुआ है 
इन वीर शहीदो के बारे मे कुछ इतिहासकारो को छोडकर ,किसी ने लिखने का कष्ट नही किया । यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि इन शहीद क्रान्तिकारीयो को इनका सम्मान दिलाने के लिए किसी ने भी कदम नही बढाया। बल्की कंही नाम दबाया गया तो कंही इनके नाम की जगह सिर्फ जनता बोलकर दो शब्द मे ही किस्सा खत्म करदिया।









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1857 का हिंडन युध्द / 1857 War of Hindon Revolt

हिंडन का युध्द - 1857 का गदर

1857 war of Hindon in between Gurjar Mutineers and British Army in 1857 Revolution 

1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में मेरठ और दिल्ली की सीमा पर हिंडन नदी के किनारे 30, 31 मई 1857 को राष्ट्रवादी सेना और अंग्रेजों के बीच एक ऐतिहासिक युद्ध हुआ था जिसमें गुर्जरो ने दादरी के राजा राव उमराव सिंह गुर्जर के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना के दांत खट्टे कर दिये थे।जैसा कि विदित है कि 10मई 1857 को मेरठ में कोतवाल धनसिंह गुर्जर के नेतृत्व में गुर्जरो ने विद्रोह कर दिया और रात में ही वो दिल्ली कूच कर गए थे। 11 मई को इन्होंने अन्तिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को हिन्दुस्तान का बादशाह घोषित कर दिया और अंग्रेजों को दिल्ली के बाहर खदेड़ दिया।अंग्रेजों ने दिल्ली के बाहर रिज क्षेत्र में शरण ले ली।तत्कालीन परिस्थितियों में दिल्ली की क्रान्तिकारी सरकार के लिए मेरठ क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण था।न केवल मेरठ से गुर्जर विद्रोह की शुरूआत हुई थी वरन पूरे मेरठ क्षेत्र में,सहारनपुर से लेकर बुलन्दशहर तक के गुर्जर इस अंग्रेज विरोधी संघर्ष में कूद पड़े थे। ब्रिटिश विरोधी संघर्ष ने यहाँ जन आन्दोलन और  स्थिति को देखते हुए मुगल बादशाह ने मालागढ़ के नवाब वलीदाद खान को इस क्षेत्र का नायब सूबेदार बना दिया,उसने इस क्षेत्र की गुर्जर क्रान्तिकारी गतिविधियों को गति प्रदान करने के लिये दादरी में क्रान्तिकारियों के नेता राजा उमराव सिंह गुर्जर से सम्पर्क साधा जिसने दिल्ली की क्रान्तिकारी सरकार का पूरा साथ देने का वादा किया।मेरठ में अंग्रेजों के बीच अफवाह थी कि गुर्जर बड़ी भारी संख्या में, मेरठ पर हमला कर सकते हैं अंग्रेज मेरठ को बचाने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थे क्योंकि मेरठ पूरे डिवीजन का केन्द्र था। मेरठ को आधार बनाकर ही अंग्रेज इस क्षेत्र में क्रान्ति का दमन कर सकते थे।अंग्रेज इस सम्भावित हमले से रक्षा की तैयारी में जुट गए। मेरठ होकर वापिस गए दो व्यक्तियों ने बहादुर शाह जफर को बताया कि 1000 यूरोपिय सैनिकों ने सूरज कुण्ड पर एक किले का निर्माण कर लिया है।इस प्रकार दोनों और युद्ध की तैयारियां जोरो पर थी। तकरीबन 20
मई 1857 को गुर्जरो ने हिंडन नदी का पुल तोड़ दिया जिससे दिल्ली के रिज क्षेत्र में शरण लिए अंग्रेजों का सम्पर्क मेरठ और उत्तरी जिलो से टूट गया।इस बीच युद्ध का अवसर आ गया जब दिल्ली को पुनः जीतने के लिए अंग्रेज़ों  की एक विशाल सेना प्रधान सेनापति बर्नाड़ के नेतृत्व में अम्बाला छावनी से चल पड़ी।सेनापति बर्नाड ने दिल्ली पर धावा बोलने से पहले मेरठ की अंग्रेज सेना को साथ ले लेने का निर्णय किया। अतः 30 मई 1857 को जनरल आर्कलेड विल्सन की अध्यक्षता में मेरठ की अंग्रेज़ सेना बर्नाड का साथ देने के लिए गाजियाबाद के निकट हिंडन नदी के तट पर पहुँच गई। किन्तु इन दोनों सेनाओं को मिलने से रोकने के लिए क्रान्तिकारी सैनिकों और आम जनता ने भी हिन्डन नदी के दूसरी तरफ मोर्चा लगा रखा था।जनरल विल्सन की सेना में 60वीं शाही राइफल्स की 4 कम्पनियां, कार्बाइनरों की 2 स्क्वाड्रन, हल्की फील्ड बैट्री, ट्रुप हार्स आर्टिलरी, 1 कम्पनी हिन्दुस्तानी सैपर्स एवं माईनर्स, 100 तोपची एवं हथगोला विंग के सिपाही थे।अंग्रेजी सेना अपनी सैनिक व्यवस्था बनाने का प्रयास कर रही थी कि क्रान्तिकारी सेना ने उन पर तोपों से आक्रमण
कर दिया।भारतीयों की राष्ट्रवादी सेना की कमान मुगल शहजादे मिर्जा अबू बक्र ,दादरी के राजा उमराव सिंह गुर्जर एवं नवाब वलीदाद खान के हाथ में थी। भारतीयों की सेना में बहुत से घुड़सवार, पैदल और घुड़सवार तोपची थे।गुर्जरो ने तोपे पुल के सामने एक ऊँचे टीले पर लगा रखी थी।गुर्जरो की गोलाबारी ने अंग्रेजी सेना के अगले भाग को क्षतिग्रस्त कर दिया अंग्रेजों ने रणनीति बदलते हुए भारतीय सेना के बायें भाग पर जोरदार
हमला बोल दिया। इस हमले के लिए अंग्रेजों ने 18 पौंड के तोपखाने, फील्ड बैट्री और घुड़सवार तोपखाने का प्रयोग किया। इससे क्रान्तिकारी सेना को पीछे हटना पड़ा और उसकी पाँच तोपे वही छूट गई। जैसे ही अंग्रेजी सेना इन तोपों को कब्जे में लेने के लिए वहाँ पहुँची, वही छुपे एक भारतीय सिपाही ने बारूद में आग लगा दी, जिससे एक भयंकर विस्फोट में अंग्रेज सेनापति कै. एण्ड्रूज और 10 अंग्रेज सैनिक मारे गए। इस प्रकार इन वीर गुर्जरो ने अपने प्राणों की आहुति देकर अंग्रेजों से भी अपने साहस और देशभक्ति का लोहा मनवा लिया। एक अंग्रेज अधिकारी ने लिखा था कि ”ऐसे लोगों से ही युद्ध का इतिहास चमत्कृत होता है।अगले दिन गुर्जरो ने दोपहर में अंग्रेजी सेना पर हमला बोल दिया यह बेहद गर्म दिन था और अंग्रेज गर्मी से बेहाल हो रहे थे। भारतीयों ने हिंडन के निकट एक टीले से तोपों के गोलों की वर्षा कर दी। अंग्रेजों ने जवाबी गोलाबारी की। 2 घंटे चली इस गोलाबारी में लै0 नैपियर और 60वीं रायफल्स के 11 जवान मारे गए तथा बहुत से अंग्रेज घायल हो गए।15 अंग्रेज गुर्जरो से लड़ते-2 पस्त हो गए, हालांकि अंग्रेज सेनापति जनरल विल्सन ने इसके लिए भयंकर गर्मी को दोषी माना। गुर्जर भी एक अंग्रेज परस्त गांव को आग लगाकर सुरक्षित लौट गए।1 जून 1851 को अंग्रेजों की मदद को गोरखा पलटन हिंडन पहुँच गई तिस पर भी अंग्रेजी सेना आगे बढ़ने का साहस नहीं कर सकी और बागपत की तरफ मुड़ गई।16 इस प्रकार गुर्जरो ने 30, 31 मई 1857 को लड़े
गए हिंडन के युद्ध में साहस और देशभक्ति की एक ऐसी कहानी लिख दी, जिसमें दो अंग्रेजी सेनाओं के ना मिलने देने के लक्ष्य को पूरा करते हुए, उन्होंने अंग्रेजी बहादुरी के दर्प को चूर-चूर कर दिया।





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