Thursday 19 May 2016

शहीद सूबा देवहंस कसाना गुर्जर / Suba Devhansh Kasana Gurjar

अमर शहीद - सूबा देवहंस कसाना गुर्जर 

Suba Devhansh Kasana Gurjar - A Great Freedom Fighter 

देवहंस के पिता का नाम बीजासिंह गुर्जर था। इनका गांव कुदिन्ना राजस्थान के धौलपुर तथा बाड़ी के बीच तालाब शाही से 3 मील पूर्व की ओर धनी के बीच बसा हुआ है। यह कसाने गोत्र के गूर्जरों का गांव है। आगरा के सैयद से लेकर शिवपुरी के सवनवादा और नरवर तक तथा भिण्ड जिले के गुरीखा गांव से लेकर दतिया की तलहटी तक गूर्जराधार का इलाका कहलाता है। मुरैना जिले का पूर्व नाम तंवरधार और इससे लगा इलाका भदावर कहलाता है। इस प्रकार जिला मुरैना, ग्वालियर, भिण्ड, शिवपुरी, दतिया जिला (मध्य प्रदेश) के तमाम गांव जातीय बाहुल्यता के कारण गूर्जरधारा कहलाते हैं। प्रादेशिक सीमाएं (उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश) इन के सामाजिक संगठन और गुर्जर संस्कृति के मार्ग में बाधा नहीं है। देवहसं के गोत्र कसाना के सौगांव इस गूजरधार के अन्र्तगत आते हैं।

कुदिन्ना गांव वर्तमान धौलपुर (राजस्थान) जिले के अन्र्तगत है। किन्तु इसका परिवेश उत्तर प्रदेश के आगरा, मध्य प्रदेश के मुरैना, ग्वालियर, शिवपुरी, भिण्ड, दतिया के गूजराधारा से निर्मित है। गूजराधार का क्षेत्र अधिकतर पहाड़ी, उबड़-खाबड़ तथा घने जंगलों से आच्छादित है। गूजरों का जब राजनैतिक पतन हुआ तो ये जंगलों, बीहड़ों में सिर छिपाने चले गये गये और अपनी खोई हुई शक्ति को बटोरने लगे लेकिन इन्होने सिर झुकाना पसन्द नहीं किया । पंद्रहवीं शताब्दी में यवनों के तूफानी आक्रमणों से इस क्षेत्र के गुर्जरों ने टक्कर ली थी छापामार युद्ध पद्धति गुर्जरों की खोज है जिसे कालान्तर में शिवाजी ने कुछ परिष्कृत करके निजामशाही आदिलशाही, मुगलशाही तथा कुतुबशाही से डटकर टक्कर ली थी और हिन्द स्वराज की स्थापना की थी । यही कुदिन्ना गांव मुगलिग हकूमत के दौरान लड़ाकू गुर्जरों का केन्द्र था। मुरैना के बमरौली, इटावली , टिक्होली, घुरैया बसई चैखेटी और मृगनयनी की गंाव रोराराई भी लड़ाकू गुर्जरों के केन्द्र थे । इन गांवों में कसाने, कोरी, तोमर, छावड़ी, घुरया, मावई व चन्देले गोत्र के गुर्जरों का प्रभुत्व तथा बाहुल्य है।

देवहंस का जन्म चैतवदी आठे सम्वत 1869 की रात को हुआ था। ये बीजासिंह की चौथी संतान थे । बीजासिंह की आर्थिक स्थिति अति सामान्य थी। बाड़ी के पुरोहित ने बिना दक्षिणा के ग्रहराशि व नाम बताने से इंकार कर दिया था। बीजासिंह ने स्वयं अपने इस बेटे का नाम देवहंस रखा । इससे पहले लड़के का नाम रामहंस था। बीजासिंह के पास गाय भैंसे बहुत थी। एक बार इन्होने अपनी 10 भैंसे व 3 गायों की रक्षा हेतु शेर को मार डाला था। शेरनी ने इस का बदला लेने के लिए बीजासिंह पर हमला किया उसे भी यमलोक पहुंचा दिया । बीजासिंह की वीरता की कहानी की चर्चा सारे क्षेत्र में फैल गई तालाबशाही के पठान हैदरखां ने बीजासिंह का सम्मान किया और उसे तलवार भेंट में दी । देवहंस उस समय दुधमुंहा शिशु था लेकिन उसके हृदय में अपने पिता की वीरता की छाप उसी समय से अंकित हो गई थी ।

देवहंस जब एक वर्ष के थे । इनकी मां बाजरे के खेत में काम कर रही थी। देवहंस को खेत की मेढ़ पर डलिया में बिछौना कर सुला कर खेत में बीजासिंह व उनकी पत्नी खटानी व्यस्त हो गये । रामहंस 5 वर्ष का था उसे देखभाल को छोड़ गये । रामहंस खेलता हुा दूसरे मेंढ़ तक चला गया । मां की नजर जब देवहंस की तरफ गई तो रामहंस नजर नहीं आया। वह दौड़ कर देवहंस को देखने आई तो देखा कि देवहंस एक विशैले नाग से खेल रहा है। नाग फन फैलाये देवहंस से खेल रहा है बच्चा खुशी से किलकारी मार रहा है। खटानी गूजरी सहम गई और उसने बीजासिंह को बुलाया । वह भी इस अदभूत दृश्य को देखकर हत्प्रभ रह गये । दोनों ने अपने इष्टदेव का स्मरण किया और नागदेवता आलोप हो गया ।
बीजासिंह ने भविष्यवाणी की यदि बच्चा जी गया तो धरती पर राज करेगा । बच्चे पर नागदेव की विशेष कृपा है। कौन जानता था कि बाप की भविष्यवाणी एक दिन सच साबित होगी और देवहंस एक क्रान्तिकारी देशभक्त योद्धा बनेगा ।
देवहंस जब 8-10 वर्ष के थे खेल रहे थे । प्रसिद्ध ज्योतिषी उल्लिका मिश्र कहीं से पधारे थे । वे बच्चों के खेल को देख रहे थे । देवा इस खेल में विजयी रहा । होनहार विरवान को होते चिकने पात । देवहंस को देखकर ज्योतिषी मिश्र ने भविष्यवाणी की, यह बालक भाग्यशाली है एक दिन बिना तिलक का राजा बनेगा । मिश्र जी तीन दिन कुदिन्ना गांव में ठहरे और भावी सूवा देवहंस की जन्मपत्री बनाकर बीजासिंह को दे दी । ग्राम निवासियों के स्वप्न में भी देवहंस के राजा बनने की कल्पना तक नहीं थी और मिश्रजी को लोगों ने ठग समझा यह कर मजाक उड़ाया कि बीजासिंह के घर में बीज तक तो है नहीं राजा बनेगा इसका छोरा पुरूष के भाग्य का किस को पता है।

देवहंस जब बारहवर्ष के हुए तो अपने घरेलू काम धंधे में पिता का हाथ बंटाने लगे । गाय भैंसों को चराने का काम इन्हें पसन्द आया । दिन भर जंगल में खेलकूद, कुश्ती और ग्रामीण गाने गाते रहते । थोड़े ही दिन में ग्वालों की एक गायक टोली बना ली जो देवा की टोली के नाम से मशहूर हो गई । तालाबशाही में हैदरखां पठान के पास आगरे का मशहूर मल्ल चन्दू रहता था। उससे देवा ने मल्ल विद्या, लाठी, बनैती की कला सीखी और देवहंस की बाड़ी, बरोड़ी , धौलपुर, राजाखेड़ा, सेंपऊ-आगरा, मथुरा के दंगलेां में कुश्ती लड़ने की धाक जम गई । तालाबशाही पर गायन के आयोजनों में भी उसे गान विद्या में प्रसिद्ध कर दिया । वह अपने इष्ट बाबू महाराज के भजन गाता था। लोग उसके भजन सुन कर मुग्ध हो जाते थे ।
वह हर वर्ष बाड़ी के बारह भाईयों के मेले में जाता था । वहंा पर भी वह बाबू महाराज के गीत सुनाया करता था। अब देवहंस प्रसिद्ध पहलवान और लोकप्रिय गायक के रूप में जाना जाने लगा था ।
आसपास के ग्रामीण शेर और चीतों द्वारा उनके पशुओं के वध के कारण बहुत आंतकित और परेशान हो गए थे । देवहंस ने आखेट करना शुरू थोड़ी उम्र से हीे कर दिया था । जब कोई शेर किसी पशु को मार खाता तो ग्रामीण देव के पास
पहुंचते थे और देवा जब तक शेर या चीते का वध न कर देता तब तक दम नहीं लेता था। उसने अपनी ग्वालियों की टोली के साथ मिलकर एक नहीं अनेक शेर और चीतों का वध करके किसानों के दुधारू और उपयोगी पशुओं की रक्षा की जिससे देवा का यश सारे क्षेत्र में फैल गया । देवा की बहादुरी की प्रशंसा सुनकर एक बार लाट साहब ने देवा को तालाब शाही पर बुलवाया था और देवा से मिलकर प्रसन्नता प्रगट की थी ।

बाड़ी के मेले में देवा बाबू महाराज के भजन गा रहा था। हजारों की भीड़ अपने इष्ट देव बाबू महाराज की जय के नारे लगा रही थी। तभी धौलपुर नरेश राणा भगवत सिंह अपनी रानी के साथ हाथी पर सवार वहां से गुजरे लेकिन भीड़ ने राजा के स्वागत करने की बजाये देवा के भजन सुनने में दतचित रहे । राजा व रानी देवा के भजन सुनकर सम्मोहित से हो गए और दोनों ने बीजासिंह से इस किशोर को अपने साथ धौलपुर ले जाने का आग्रह जिसे बीजासिंह ने भविष्यवाणी के आधार पर स्वीकार कर लिया और देवहंस अब कुदिन्ना की झोपड़ी से धौलपुर के महलों में पहुंच गए ।

राणा भगवत सिंह और रानी भवाजू देवहंस को अपने महलों में ले आए और उन्होने सरकारी फरमान जारी किया कि देवहंस को राज दरबार का कवि व गायक बनाया जाता है। देवहंस के शरीर सौष्टव व वीरता की प्रशंसा सुनकर राणा ने उसे अंग्रेंजी फौज में भर्ती कराके प्रशिक्षण दिलाया । अंग्रेंजों को यह मालूम नहीं था कि यह सैनिक टेªनिंग लेकर 1857 ई0 में आगरे क्षेत्र से उनके राज्य को समाप्त कर देगा । धौलपुर के राणा भगवत सिंह ने अपनी फौज का उसे सर्वोच्च सेनापति बना दिया। देवहंस ने अश्वारोही दल बढ़ा कर फौजी छावनी का रूप दे दिया और देवहंस टंटकोर नामक की अलग ट्रांसपोर्ट कमान कायम की । जिसे धौलपुर के अंग्रेंज पोलिटिकल ऐजेंट ने वेलेजली की सहायक प्रथा नीति के विरूद्ध माना था। जिसकी शिकायत उसने बड़े लाट साहब से की थी ।

राणा भगवतसिंह व देवहंस करौली देवी के दर्शन करके झिरी के बाग में पड़ाव डाले हुए थे । झिरी सरमथुरा के राजा ने दोस्ती करने के लिए राणा और देवहंस को दावत पर बुलाया । झिरी सरमथुरा के राजा राणा को चान्दी के थाल में भोजन परोसा और देवहंस को पातर में परोसा । इस गलत व्यवहार पर राणा भगवत सिंह ने आपति की तो सरमथुरा के राजा ने जवाब दिया हमारे यहंा गूजरों को ऐसे ही खिलाते हैं। देवहंस ने भोजन के ग्रास को माथे लगाकर कहा, तुम्हें एक दिन ऐसे ही खिलाउंगा । देवहंस और राणा वापिस आ गए । इस तौहीन का कुप्रभाव सारी गूजराधार पर पड़ा। देवहंस ने छः महीने में गूजरों की विशेष फौज तैयार की उसे प्रशिक्षण देकरर धौलपुर की फौज साथ लेकर सरमथुरा पर धावा बोल दिया । किले को ध्वस्त करके धूल में मिला दिया और राजा को खम्बे से बांध कर पातर में खाना परोस कर पूछा गूजरों को कैसे खाना खिलाते हैं और उसे कैद करके धौलपुर नरेश के पिता कीर्तिसिंह की पाग के साथ (जो इन्होने कभी रख ली थी और मालगुजारी देने से भी मना कर दिया था) धौलपुर के राणा भगवत सिंह के सम्मुख पेश कर दिया था। झिरी सरमथुरा के किले की किवाड़ उतार लाए थे जो बाद में इन्होने अपने किले देवहंस गढ़ में लगाए गए थे जो आज भी देवहंस की विजय गाथा के प्रतीक हैं।

झिरी सरमथुरा की विजय के पश्चात राणा भगवतसिंह ने देवहंस को धौलपुर राज्य का सूबा नियुक्त किया और धौलपुर रियासत के जागीरदारों ने सर्वोच्च स्थान दिया । ग्राम डरेरा, बागधर, सहेड़ी तथा सामलिया का पूरा की जागीर बतौर वीरोचित सम्मान में दी, जो गांव सरमथुरा से जीते थे वे भी उसे ही दे दिए गए । धौलपुर में देवहंस का राजकीय सम्मान किया गया। दीपावली के त्यौहार की तरह दीप जलाए गए । देवहंस धौलपुर का दीवान और अपनी जागीर का राजा बन गया और उसके पिता बीजासिंह उल्लिका मिश्र की भविष्यवाणी सच हो गई और वह सूबा देवहंस के नाम से प्रसिद्ध हो गया ।

सूबा देवहंस ने देवहंसगढ़ नामका किला बनाया जो धौलपुर से लगभग 15 मील दूर है। किला बहुत भव्य एवं सुन्दर है। किले का मुख्य द्वार मुगलकालीन जैसा है परन्तु उसकी बनावट भारतीय हिन्दू किलों के समान है। द्वार पर द्वारपालों के लिए प्रकोष्ट बने हैं। इस द्वार के उपर पंचखंडा महल जो दरबार हाल रहा होगा । दुर्ग लाल पत्थर का बना है, खम्भों पर नक्काशी शहतीर डालकर पटिटयों से छत बनाई गई है। शिल्पकला देखते ही बनती है। सारे चैक में चैकोर बावड़ी है जिसमें पानी भरा हुआ है। इस चैक से लगी के बाद एक तीन हवेली है जो रनिवास और रहवास के लिए काम में लाई जाती थी हवेली के अन्दर अनाज के लिए पत्थर की कोठी बनी हुई है। किले की चारदीवारी 20 फुट चैड़ी हैं चारों और गुम्बज है। किले के पश्चिम में अर्ध कलाकार एक लम्बा चैड़ा खाल है जिसे उतर पूर्व की ओर बांध की तरह बांधा है। इसमें पानी भरा रहता था। पूर्व की ओर भी एक तालाब है। दक्षिण का भाग खुला है। सामरिक दृष्टि से सूबा देवहंस का किला बहुत महत्वपूर्ण है। यह किला देवहंस के गांव कुदिन्नना से लगभग 3 मील दूर है।

देवहंस ने 1857 की क्रान्ति में बढ़ चढ़ कर भाग लिया था। आगरा जिले की 3/4 तहसीलों पर अधिकार करके इस क्षेत्र में अंग्रेंजी राज को समाप्त सा कर दिया था। दमनचक्र के दौरान अंग्रेज हकूमत ने अपने वफादार जमीदार हर नारायण की सहायता लेकर देवहंस को हराना चाहा मगर उसे स्वयं नीचा देखना पड़ा । इस लड़ाई में 3000 बन्दूकें, 2 स्टेनगन तथा 2 लाख की सम्पति सूबा देवहंस के हाथ लगी । इण्डियन एम्पायर के लेखक मार्टिन्स ने इस सम्बन्ध में लिखा है गुर्जरों के सिवाय हिन्दू जनता में किसी ने भी विद्रोहियों का साथ नहीं दिया । विद्रोह की आग घंटों में आगरा से दिल्ली , सहारनपुर, बुलन्दशहर तक सामूहिक रूप से फैल गई । धौलपुर के सूबा देवहंस ने आगरे की तहसीलों पर कब्जा कर लिया ।





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